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ओ चि॒त्सखा॑यं स॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रू चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान् । पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीत वे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

o cit sakhāyaṁ sakhyā vavṛtyāṁ tiraḥ purū cid arṇavaṁ jaganvān | pitur napātam ā dadhīta vedhā adhi kṣami prataraṁ dīdhyānaḥ ||

पद पाठ

ओ इति॑ । चि॒त् । सखा॑यम् । स॒ख्या । व॒वृ॒त्या॒म् । ति॒रः । पु॒रु । चि॒त् । अ॒र्ण॒वम् । ज॒ग॒न्वान् । पि॒तुः । नपा॑तम् । आ । द॒धी॒त॒ । वे॒धाः । अधि॑ । क्षमि॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दीध्या॑नः ॥ १०.१०.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:10» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में यम-यमी संवाद से दिन-रात का विज्ञान और गृहस्थधर्मशिक्षण आलङ्कारिक ढंग से कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरु) अपने प्रकाश और तेज से अनेक पृथिवी आदि लोकों को (चित्) चेतानेवाले सूर्य ने (तिरः) सुविस्तृत (अर्णवम्) जलमय अन्तरिक्ष को जब (जगन्वान्) प्राप्त किया अर्थात् उसमें स्थित हुआ, तब पृथिवी के निचले भाग में स्थित यमी-रात कहने लगी कि (चित्) हे चेतनाशील ! अन्यों को चेतानेवाले दिवस ! (सख्या) सखिपन के लिये प्रेम से (सखायम्) तुझ सखारूप पति को (आववृत्याम्-उ) आमन्त्रित करती हूँ, अवश्य आप (अधिक्षमि) इस पृथिवीतल पर नीचे आवें, क्योंकि मैं पृथिवी के अधोभाग में हूँ एवं मेरे समीप आकर (प्रतरम्) दुःख से तराने तथा पितृ-ऋण से अनृण करानेवाली योग्य सन्तान को (दीध्यानः) लक्ष्य में रखते हुए (वेधाः) आप मेधावी (पितुः नपातम्) अपने पिता के पौत्र अर्थात् निजपुत्र को (आदधीत) गर्भाधान रीति से मेरे में स्थापन करो, यह मेरा प्रस्ताव है ॥१॥
भावार्थभाषाः - सूर्योदय होने पर दिन पृथिवी के ऊपर और रात्रि नीचे होती है। गृहस्थाश्रम में पति से नम्र हो गृहस्थधर्म की याचना पत्नी करे तथा पितृ-ऋण से अनृण होने के लिये पुत्र की उत्पत्ति करे।प्रस्तुत मन्त्र पर सायण ने जो अश्लील अर्थ दिया है, संदेहनिवृत्ति के लिये उसकी समीक्षा दी जा रही है−१−क्या यहाँ विवस्वान् कोई देहधारी मनुष्य है कि जिसके यम-यमी सन्तानों की कथा वेद वर्णन करता है ? क्या वैदिक काल से पूर्व उनकी उत्पत्ति हो चुकी थी अथवा अलङ्कार है, जैसा कि नवीन लोग कहते हैं कि विवस्वान् सूर्य है, उसका लड़का दिन और लड़की रात्रि है। ऐसा यदि मानते हैं, तो वह अप्रकाशमान निर्जन देश कौनसा है, जहाँ रात्रि गयी ?२−“अर्णवं समुद्रैकदेशमवान्तरद्वीपम्”समीक्षा−यहाँ ‘अर्णवम्’ का अर्थ ‘अवान्तरद्वीपम्’ अत्यन्त गौणलक्षण में ही हो सकता है।३−“जगन्वान् गतवती यमी” यहाँ जगन्वान् पुल्लिङ्ग को स्त्रीलिङ्ग का विशेषण करना शब्द के साथ बलात्कार ही है।४−“ओववृत्याम्=आवर्त्तयामि=त्वत्सम्भोगं करोमि” यहाँ “त्वत्सम्भोगं करोमि=तेरा सम्भोग करती हूँ” यह कहना और सम्भोग की प्रार्थना भी करते जाना यह कितना विपरीत अर्थ है !५−“पितुः=आवयोर्भविष्यतः पुत्रस्य पितृभूतस्य तवार्थाय=हम दोनों के होनेवाले पुत्र का तुझ पितृरूप के निमित्त” यह अर्थ अत्यन्त दुःसाध्य और गौरवदोषयुक्त है।६−अधिक्षमि=अधि पृथिव्यां पृथिवीस्थानीयनभोदरे इत्यर्थः”= “पृथिवीस्थानीय नभोदर में।” द्वीपान्तर में स्थिति और नभोदर में गर्भाधान हो, यह असम्बद्ध अर्थ है।७−“पुत्रस्य जननार्थमावां ध्यायन्नादधीत प्रजापतिः=पुत्रजननार्थ हम दोनों का ध्यान करता हुआ प्रजापति गर्भाधान करे” कितनी असङ्गति है-प्रस्ताव और प्रार्थना पति से और आधान करे प्रजापति ! ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते यमयमीसंवादेनाहोरात्रविज्ञानं गार्हस्थ्यशिक्षणं चालङ्कारिकत्वेनोच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरु चित्-तिरः-अर्णवम्-जगन्वान्) पुरूणां बहूनाम् ‘सुपां सुपो भवन्तीति’ षष्ठीबहुवचने प्रथमाद्विवचनं पदपाठाग्रहेण षष्ठीबहुवचनप्रत्ययस्य लुक्। चित्-चेतयिता। सूर्यस्तिरस्तीर्णं सुविस्तृतमर्णवम्, अर्णवः समुद्रस्तमन्तरिक्षम् “समुद्र-इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम् [निघ० १।३] तथा-अर्णः-जलं तद्वन्तमाकाशं जगन्वान् प्राप्तवान् अन्तरिक्षे स्थित इत्यर्थः। तदा किं जातमित्युच्यते (चित्) हे चेतनशील ! अन्यान् चेतयितो दिवस ! (सखायं सख्या) अहं यमी रात्रिस्त्वां सखायं पूर्वतः सखीभूतं पतिमित्यर्थः, सख्या-सख्याय मित्रत्वाय, सख्यशब्दात् ‘ङे’ स्थाने आकारादेशः “सुपां सुलुक्”-[अष्टा० ७।१।३९]  इत्यनेन। (आ-ववृत्याम्-उ) अतिशयेनावर्तयाम्येव-सुतरामाह्वयामि हि। आङ्पूर्वकवृतुधातोर्लिङि रूपं लडर्थे शपश्श्लुश्च “बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।१।७६] सूत्रेण, व्यत्ययेन परस्मैपदं च (अधिक्षमि) पृथिव्या अधोभागे पृथिव्यधिकृता। कुतः ? यदहमत्र पृथिव्या अधो भागेऽस्मि तस्मान्मत्समीपमागच्छेत्यर्थः (प्रतरम्) प्रकृष्टं तरन्ति जना दुःखमनेनेति प्रतरं योग्यसन्तानं पितृ-णस्योन्नायकं (दीध्यानः) ध्यायन्-लक्षयनिति यावत् (वेधाः) मेधावी (पितुः-नपातम्) जनकस्य नप्तारं स्वकीयपुत्रमित्यर्थः (आदधीत) गर्भाधानरीत्या मयि स्थापयेति गर्भाधानस्य प्रस्तावः ॥१॥